अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की कलम से...........
यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी !
हे ईश, भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो !
मरते 'बिस्मिल' रोशन लहरी अशफाक अत्याचार से,
होंगे पैदा सैकड़ों उनके रुधिर की धार से-
उनके प्रबल उद्योग से उद्धार होगा देश का,
तब नाश होगा सर्वदा दुःख शोक के लवलेश का!
Thursday, October 14, 2010
Friday, August 20, 2010
एक बिहारी डकैत जो दिलों पर डाका डालता है
एक बिहारी भैया ब्लॉगजगत में आये और चोरों की तरह लोगों के दिलों में सेंध लगाने लगे, पता ही नहीं चला कि कब हमारे भी दिल में समा गए, जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ सलिल वर्मा (चला बिहारी ब्लॉगर बनने) की, पूरे ब्लॉगजगत में उन्होंने एक बहुत ही सुखद पारिवारिक माहौल बना दिया है, मैं भी उनसे मिला नहीं हूँ ना ही कभी बात हुई है लेकिन फिर भी लगता है जैसे हम एक ही परिवार के हैं, कुछ पंक्तियाँ उनके लिए.......
बहुत शातिर हैं वो
चुपके से
दिलों में सेंध लगाते हैं
बिन आहट के,
आप उन्हें
डकैत भी कह सकते हैं
वो दिलों पे
डाका डालते हैं अक्सर,
या शब्दों का जादूगर
कह लो उन्हें
उनके शब्द
तीर की तरह उतर जाते हैं
दिलों में,
वो फैला रहे हैं
परिवारवाद यहाँ,
मगर हाँ
उनके परिवार में हैं
आप, मैं और पूरा ब्लॉगजगत,
वैसे सलिल कहते हैं उन्हें
वो सिखा रहे हैं हमें
अपनत्व क्या है
और दिल जीतने का हुनर
किसे कहते हैं!
http://chalaabihari.blogspot.com/
बहुत शातिर हैं वो
चुपके से
दिलों में सेंध लगाते हैं
बिन आहट के,
आप उन्हें
डकैत भी कह सकते हैं
वो दिलों पे
डाका डालते हैं अक्सर,
या शब्दों का जादूगर
कह लो उन्हें
उनके शब्द
तीर की तरह उतर जाते हैं
दिलों में,
वो फैला रहे हैं
परिवारवाद यहाँ,
मगर हाँ
उनके परिवार में हैं
आप, मैं और पूरा ब्लॉगजगत,
वैसे सलिल कहते हैं उन्हें
वो सिखा रहे हैं हमें
अपनत्व क्या है
और दिल जीतने का हुनर
किसे कहते हैं!
http://chalaabihari.blogspot.com/
Saturday, August 14, 2010
जिन्ना को उनका पाकिस्तान मिला नेहरु को हिन्दुस्तान
क्या नहीं सोचा था
कि ये कीमत चुकानी होगी
आज़ादी और विभाजन की,
नालियों में बह रहा
बेकसूरों का रक्त था
और वो बेकसूर नहीं जानते थे
कि सरहद किसे कहते हैं
और आज़ादी क्या है,
वो नहीं जानते थे
नेहरु और जिन्ना को,
वो तो मार दिए गए
हिन्दू और मुसलमान होने के
अपराध में,
मरने से पहले देखे थे उन्होंने
अपनी औरतों के स्तन कटते हुए
अपने जिंदा बच्चों को
गोस्त कि तरह आग में पकते हुए,
अपनी मरी हुई माँ की
कटी हुई छातियों से बहते रक्त को
सहमे हुए देख रहे थे
और उसकी बाहों को
इस उम्मीद में खींच रहे थे
कि बस अब वो उसे गोद में उठा लेगी,
माएँ अपनी जवान बेटियों के
उन्हें बलात्कार से बचाने के लिए,
बेरहमी कि हदों को तोड़कर
इंसानियत को रौंदा गया,
पर एक सवाल आज भी
अपनी जगह कायम है
कि इस भीषण त्रासदी का
ज़िम्मेदार कौन???
जिन्ना को
उनका पाकिस्तान मिला
नेहरु को
हिन्दुस्तान,
परन्तु बाकी बचे
चालीस करोड़ लोगों को
क्या मिला???
टुकड़ों में बंटा
लहुलुहान हिन्दुस्तान!!!
Wednesday, August 11, 2010
होगा एक नए भारत का निर्माण!
ये है आज का भारत
नरभक्षी बन चुकी है व्यवस्था यहाँ
भेड़ की खाल पहने
घूम रहे हैं
भेडियों के समूह,
मेमनों को
अपने नुकीले
दांतों में दबोच
रक्त चूस रहे हैं बेखौफ,
लेकिन हम तो शायद
चुप ही रहेंगे
सहने का सामर्थ्य है
सहेंगे,
मगर मित्र
एक दिन अवश्य
ज्वालामुखी फटेगा
और गर्म लावा बहेगा,
या फिर
धरती कांपेगी
और वो दीवारें
जिनकी नीव कमजोर है
ढह जाएंगी,
और ये
नुकीले दांत वाले भेडिये
दम तोड़ रहे होंगे
दीवारों के मलबे तले,
एक दिन हमारी निद्रा
अवश्य टूटेगी
और हमारी आँखे
अंगार उगलेंगी,
और तब हम
प्रगति के पथ पर उगे
काँटों को
कुचलेंगे,
फिर लम्बी रात के बाद
एक नयी सुबह होगी
और हम
खुली हवा में
ताजगी भरी सांस लेंगे,
और होगा एक नए भारत का निर्माण!
Tuesday, August 10, 2010
वो कहते हैं कश्मीर दे दो
वो कहते हैं
कश्मीर दे दो
बड़े नादान हैं
नहीं जानते
कि जिस्म से रूह
नहीं मांगते,
हमारी धडकनों में
बसता है कश्मीर
हमारी रगों में
बहता है कश्मीर
हमारी साँसों में
बसा है कश्मीर,
हिंद की
जागीर है कश्मीर!
कश्मीर दे दो
बड़े नादान हैं
नहीं जानते
कि जिस्म से रूह
नहीं मांगते,
हमारी धडकनों में
बसता है कश्मीर
हमारी रगों में
बहता है कश्मीर
हमारी साँसों में
बसा है कश्मीर,
हिंद की
जागीर है कश्मीर!
Friday, July 23, 2010
एक मिट जाने कि हसरत, अब दिले-बिस्मिल में है......
फाँसी के लिए जाते समय बहुत जोर से 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता कि जय' का नारा लगाते हुए अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल कि कही कुछ पंक्तियाँ.......
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे!
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्रेयार, तेरी जुस्तजू रहे!
फंसी के तख्ते पर खड़े होकर उन्होंने ये शेर पढ़ा......
अब न अहले वलवले हैं
और न अरमानों कि भीड़!
एक मिट जाने कि हसरत,
अब दिले-बिस्मिल में है!
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे!
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्रेयार, तेरी जुस्तजू रहे!
फंसी के तख्ते पर खड़े होकर उन्होंने ये शेर पढ़ा......
अब न अहले वलवले हैं
और न अरमानों कि भीड़!
एक मिट जाने कि हसरत,
अब दिले-बिस्मिल में है!
Wednesday, June 23, 2010
अंग्रेजों भारत छोड़ो
एक लघुकथा..............
वो आज तक पागलों कि तरह चिल्लाता था कि अंग्रेजों भारत छोड़ो हमें आज़ादी चाहिए, आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कोई ६४-६५ साल पुराना फटेहाल तिरंगा लिए इधर से उधर दौड़ता हुए नारे लगाता रहता था, और सुभाष चन्द्र बोसे से तो वो अक्सर सवाल करता था कि तुमने खून माँगा था हमने दिया फिर हमें अब तक आज़ादी क्यों नहीं मिली? पर ना जाने क्यों गाँधी जी और नेहरु जी से वो हमेशा कुछ नाराज सा रहता था उसे विस्वाश ही नहीं था कि ये हमें आज़ादी दिलवा सकते हैं, कभी कभी वो भगत सिंह को याद करके दहाड़ें मार मार कर रोने लगता था और कहता था कि मेरा भगत अगर आज जिंदा होता तो ये फिरंगी कब के भाग खड़े होते, सारा मोहल्ला उससे परेशान था, मैं अक्सर उसे अपने कमरे कि खिड़की से देखा करता था, उसे देख कर मुझे भी ऐसा लगता था कि भारत आज भी गुलाम है, वो अक्सर घरों के शीशे ये कह कर तोड़ देता था कि इस घर में फिरंगी रहते हैं और फिर बहुत मार भी खाता था, एक दिन उसने मेरे घर का शीशा तोड़ दिया और बोला कि इस घर में भी ज़रूर फिरंगी रहते है, एक मेम रोज सुबह विलायती वस्त्र पहन कर इस घर से निकलती है और बच्चे को स्कूल छोड़ने जाती है, मैंने उसे कुछ नहीं कहा मुझे लगा कि ठीक ही तो कहता था वो, हम खुद ही आज फिरंगी बन कर अपने देश को गुलामी कि जंजीरों में जकड रहे है!
परन्तु अब से कुछ ही देर पहले एक विलायती कार उस पागल को रौंद कर चली गयी, उसकी लाश मुट्ठी बंद किये नारा लगाने वाले अंदाज में सड़क के बीचों बीच पड़ी है, और एक हाथ में उसने कस कर तिरंगे को पकड़ रखा है! पूरे मोहल्ले में आज पहली बार मरघट सा सन्नाटा है और मैं बंद खिड़की कि झीरी से झांक कर उसे देख रहा हूँ!
वो आज तक पागलों कि तरह चिल्लाता था कि अंग्रेजों भारत छोड़ो हमें आज़ादी चाहिए, आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कोई ६४-६५ साल पुराना फटेहाल तिरंगा लिए इधर से उधर दौड़ता हुए नारे लगाता रहता था, और सुभाष चन्द्र बोसे से तो वो अक्सर सवाल करता था कि तुमने खून माँगा था हमने दिया फिर हमें अब तक आज़ादी क्यों नहीं मिली? पर ना जाने क्यों गाँधी जी और नेहरु जी से वो हमेशा कुछ नाराज सा रहता था उसे विस्वाश ही नहीं था कि ये हमें आज़ादी दिलवा सकते हैं, कभी कभी वो भगत सिंह को याद करके दहाड़ें मार मार कर रोने लगता था और कहता था कि मेरा भगत अगर आज जिंदा होता तो ये फिरंगी कब के भाग खड़े होते, सारा मोहल्ला उससे परेशान था, मैं अक्सर उसे अपने कमरे कि खिड़की से देखा करता था, उसे देख कर मुझे भी ऐसा लगता था कि भारत आज भी गुलाम है, वो अक्सर घरों के शीशे ये कह कर तोड़ देता था कि इस घर में फिरंगी रहते हैं और फिर बहुत मार भी खाता था, एक दिन उसने मेरे घर का शीशा तोड़ दिया और बोला कि इस घर में भी ज़रूर फिरंगी रहते है, एक मेम रोज सुबह विलायती वस्त्र पहन कर इस घर से निकलती है और बच्चे को स्कूल छोड़ने जाती है, मैंने उसे कुछ नहीं कहा मुझे लगा कि ठीक ही तो कहता था वो, हम खुद ही आज फिरंगी बन कर अपने देश को गुलामी कि जंजीरों में जकड रहे है!
परन्तु अब से कुछ ही देर पहले एक विलायती कार उस पागल को रौंद कर चली गयी, उसकी लाश मुट्ठी बंद किये नारा लगाने वाले अंदाज में सड़क के बीचों बीच पड़ी है, और एक हाथ में उसने कस कर तिरंगे को पकड़ रखा है! पूरे मोहल्ले में आज पहली बार मरघट सा सन्नाटा है और मैं बंद खिड़की कि झीरी से झांक कर उसे देख रहा हूँ!
Monday, June 14, 2010
ऐसा कोई सिरफिरा अब नहीं यहाँ जो भारत को कहें माँ
शहीदों की चिताओ पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
आंसू सूख गए हैं
उनके भी
छोड़ गए थे जिन्हें
वो अकेले,
ऐसा कोई सिरफिरा
अब नहीं यहाँ
जो भारत को कहें माँ
और लुटा दे उस पे जां,
शहीद आत्महत्या के डर से
अब पुनर्जन्म नहीं लेते,
कोई देशभक्त
कैसे जिंदा रहेगा यहाँ
अपने ही भोंक रहे हैं खंजर
अपनों के जहाँ,
भूल चुके हम
भगत सिंह और सुभाष की बातें
गाँधी की तस्वीर
जेब में लिए फिरते हैं,
फिरंगियों से
लड़ते थे जो कभी
आज खुद
फिरंगी बने फिरते है,
शहीदों की चिताओं पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
हम तो खुद मर चुके हैं
ये तो लाशो के मेले हैं!
अब कहाँ लगते हैं मेले
आंसू सूख गए हैं
उनके भी
छोड़ गए थे जिन्हें
वो अकेले,
ऐसा कोई सिरफिरा
अब नहीं यहाँ
जो भारत को कहें माँ
और लुटा दे उस पे जां,
शहीद आत्महत्या के डर से
अब पुनर्जन्म नहीं लेते,
कोई देशभक्त
कैसे जिंदा रहेगा यहाँ
अपने ही भोंक रहे हैं खंजर
अपनों के जहाँ,
भूल चुके हम
भगत सिंह और सुभाष की बातें
गाँधी की तस्वीर
जेब में लिए फिरते हैं,
फिरंगियों से
लड़ते थे जो कभी
आज खुद
फिरंगी बने फिरते है,
शहीदों की चिताओं पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
हम तो खुद मर चुके हैं
ये तो लाशो के मेले हैं!
Thursday, June 10, 2010
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली (अमर शहीद भगत सिंह)
अमर शहीद भगत सिंह कि कुछ पंक्तियाँ, ३ मार्च १९३१ को अपने भाई को लिखे पत्र में ये पंक्तियाँ लिखी थी......
उसे ये फिक्र है हरदम नया तर्जे-ज़फ़ा क्या है,
हमें यह शौक है देखें सितम कि इन्तहा क्या है!
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा ज़हां अदू सही, आओ मुकाबला करें!
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चरागे - सहर हूँ बुझा चाहता हूँ!
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली,
ये मुस्ते - खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे!
उसे ये फिक्र है हरदम नया तर्जे-ज़फ़ा क्या है,
हमें यह शौक है देखें सितम कि इन्तहा क्या है!
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा ज़हां अदू सही, आओ मुकाबला करें!
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चरागे - सहर हूँ बुझा चाहता हूँ!
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली,
ये मुस्ते - खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे!
Monday, May 31, 2010
फाँसी से कुछ घंटे पहले लिखी रचनाएँ....
अमर शहीद अशफाकउल्ला खां 'हसरत' उपनाम से कविताएँ लिखते थे, फाँसी से कुछ घंटे पहले लिखी उनकी कुछ रचनाएँ.......
(१)
रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफ़न में/
ए पुख्तकार उल्फत हुसियार, डिग ना जाना,
मराज आशकां है इस दार और रसन में//
मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा,
फरमान कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन में//
अफ़सोस क्यों नहीं है वह रूह अब वतन में?
जिसने हिला दिया था दुनिया को एक पल में,
सैयाद जुल्मपेशा आया है जबसे 'हसरत',
है बुलबुले कफस में जागो जगन चमन में//
(२)
न कोई इंग्लिश है न कोई जर्मन,
न कोई रशियन है न कोई तुर्की/
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं/
जिसे फ़ना वह समझ रहे हैं,
बका का राज़ इसी में मुजमिर/
नहीं मिटाने से मिट सकेंगे,
यों लाख हमको मिटा रहे हैं/
खामोश 'हज़रत' खामोश 'हसरत'
अगर है जज़बा वतन का दिल में/
सजा को पहुचेंगे अपनी बेशक,
जो आज हमको सता रहे हैं/
(३)
बुजदिलो को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा/
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है/
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे//
अमर शहीद अशफाकउल्ला खां 'हसरत'
जन्म- २२ अक्तूबर १९००
शहादत- १९ दिसंबर १९२७
साभार- भारतीय क्रन्तिकारी आन्दोलन का इतिहास ( मन्मथनाथ गुप्त)
Friday, May 28, 2010
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..................
अमर शहीद पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का जन्म सन १८९७ में शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ था, उनके पिता का नाम मुरलीधर उपाध्याय था, और उनको फंसी कि सजा(उनके खुद के शब्दों में जयमाला) १८ दिसंबर १९२७ को गोरखपुर में पहनाई गयी थी, ये सजा उन्हें काकोरी रेल डकैती कांड में दी गयी थी, जिसमे कि उनके साथ अन्य तीन अशफाकउल्ला खां, रोशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी फंसी कि सजा हुई थी, बिस्मिल का पूरा जीवन देश सेवा में गुजरा और जेल में रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनी भी लिखी थी!
अशफाकउल्ला खां और बिस्मिल दो जिस्म एक जान कि तरह थे, इनकी दोस्ती आगे चलकर हिन्दु मुस्लिम एकता कि मिसाल बन गयी थी!
प्रस्तुत है 'बिस्मिल' कि लिखी कुछ अमर रचनाएँ..............
उनकी इस रचना ने नवयुवकों के दिलों में तूफ़ान ला दिया था!
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
(ऐ वतन,) करता नहीं क्यूँ दूसरी कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्क़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्क़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में!
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में!
जेल में रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा था कि "मुझे तो इस कोठरी में बड़ा आनन्द आ रहा है । मेरी इच्छा थी कि किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास करके योगाभ्यास किया जाता । अन्तिम समय वह इच्छा भी पूर्ण हो गई । साधु की गुफा न मिली तो क्या, साधना की गुफा तो मिल गई । इसी कोठरी में यह सुयोग प्राप्त हो गया कि अपनी कुछ अन्तिम बात लिखकर देशवासियों को अर्पण कर दूं । सम्भव है कि मेरे जीवन के अध्ययन से किसी आत्मा का भला हो जाए । बड़ी कठिनता से यह शुभ अवसर प्राप्त हुआ"
महसूस हो रहे हैं बादे फना के झोंके |
खुलने लगे हैं मुझ पर असरार जिन्दगी के ॥
बारे अलम उठाया रंगे निशात देता ।
आये नहीं हैं यूं ही अन्दाज बेहिसी के ॥
वफा पर दिल को सदके जान को नजरे जफ़ा कर दे ।
मुहब्बत में यह लाजिम है कि जो कुछ हो फिदा कर दे ॥
अब तो यही इच्छा है -
बहे बहरे फ़ना में जल्द या रव लाश 'बिस्मिल' की ।
कि भूखी मछलियां हैं जौहरे शमशीर कातिल की ॥
समझकर कूँकना इसकी ज़रा ऐ दागे नाकामी ।
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से ॥
सताये तुझको जो कोई बेवफा, 'बिस्मिल' ।
तो मुंह से कुछ न कहना आह ! कर लेना ॥
हम शहीदाने वफा का दीनों ईमां और है ।
सिजदे करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद के
यदि देश-हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ॥
मरते 'बिस्मिल' 'रोशन' 'लहरी' 'अशफाक' अत्याचार से ।
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥
इस अमर शहीद को मेरा कोटि कोटि नमन! जय हिंद!
Thursday, May 27, 2010
वन्दे मातरम्
इस नए ब्लॉग की शुरुआत बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय की अमर कृति से कर रहा हूँ जो आज भी हमारे अन्दर एक नया जोश भर देती है, ये रचना सर्वप्रथम १८८२ में आनंदमठ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुई थी, इस रचना पर बहुत से विवाद भी हुए थे जैसे की ये हिंदुत्व वादी रचना है इत्यादि, लेकिन अंत में सभी विवादों से परे जाकर ये हमारा राष्ट्रीय गीत बन गयी!
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम् ।।
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम् ।।
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