Monday, May 31, 2010

फाँसी से कुछ घंटे पहले लिखी रचनाएँ....


अमर शहीद अशफाकउल्ला खां 'हसरत' उपनाम से कविताएँ लिखते थे, फाँसी से कुछ घंटे पहले लिखी उनकी कुछ रचनाएँ.......

(१)
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह
रख दे कोई ज़रा सी खाके वतन कफ़न में/
ए पुख्तकार उल्फत हुसियार, डिग ना जाना,
मराज आशकां है इस दार और रसन में//
मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा,
फरमान  कृष्ण का था, अर्जुन को बीच रन में//
अफ़सोस क्यों नहीं है वह रूह अब वतन में?
जिसने हिला दिया था दुनिया को एक पल में,
सैयाद जुल्मपेशा आया है जबसे 'हसरत',
है  बुलबुले कफस में जागो जगन चमन में//

(२)
न कोई इंग्लिश है न कोई जर्मन,
न  कोई रशियन है न कोई तुर्की/
मिटाने वाले हैं अपने हिंदी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं/
जिसे फ़ना वह समझ रहे हैं,
बका का राज़ इसी में मुजमिर/
नहीं मिटाने से मिट सकेंगे,
यों लाख हमको मिटा रहे हैं/
खामोश 'हज़रत' खामोश 'हसरत'
अगर है जज़बा वतन का दिल में/
सजा को पहुचेंगे अपनी बेशक,
जो आज हमको सता रहे हैं/

(३)
बुजदिलो को ही सदा मौत से डरते देखा,
गो कि सौ बार उन्हें रोज़ ही मरते देखा/
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
मौत को एक बार जब आना है तो डरना क्या है,
हम सदा खेल ही समझा किये, मरना क्या है/
वतन हमेशा रहे शादकाम और आज़ाद,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे//



अमर शहीद अशफाकउल्ला खां 'हसरत' 
जन्म- २२ अक्तूबर १९००
शहादत- १९ दिसंबर १९२७ 

साभार- भारतीय क्रन्तिकारी आन्दोलन का इतिहास ( मन्मथनाथ गुप्त)

Friday, May 28, 2010

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..................


अमर शहीद पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का जन्म सन १८९७ में शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ था, उनके पिता का नाम मुरलीधर उपाध्याय था, और उनको फंसी कि सजा(उनके खुद के शब्दों में जयमाला)  १८ दिसंबर १९२७ को गोरखपुर में पहनाई गयी थी, ये सजा उन्हें काकोरी रेल डकैती कांड में दी गयी थी, जिसमे कि उनके साथ अन्य तीन अशफाकउल्ला खां, रोशन सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी फंसी कि सजा हुई थी, बिस्मिल का पूरा जीवन देश सेवा में गुजरा और जेल में रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनी भी लिखी थी! 
अशफाकउल्ला खां और बिस्मिल दो जिस्म एक जान कि तरह थे, इनकी दोस्ती आगे चलकर हिन्दु मुस्लिम एकता कि मिसाल बन गयी थी! 
प्रस्तुत है 'बिस्मिल' कि लिखी कुछ अमर रचनाएँ..............
उनकी इस रचना ने नवयुवकों के दिलों में तूफ़ान ला दिया था!

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
(ऐ वतन,) करता नहीं क्यूँ दूसरी कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर,
और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्क़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से.
और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम.
ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज.
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लड़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में!









जेल में रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा था कि "मुझे तो इस कोठरी में बड़ा आनन्द आ रहा है । मेरी इच्छा थी कि किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास करके योगाभ्यास किया जाता । अन्तिम समय वह इच्छा भी पूर्ण हो गई । साधु की गुफा न मिली तो क्या, साधना की गुफा तो मिल गई । इसी कोठरी में यह सुयोग प्राप्‍त हो गया कि अपनी कुछ अन्तिम बात लिखकर देशवासियों को अर्पण कर दूं । सम्भव है कि मेरे जीवन के अध्ययन से किसी आत्मा का भला हो जाए । बड़ी कठिनता से यह शुभ अवसर प्राप्‍त हुआ"





महसूस हो रहे हैं बादे फना के झोंके |
खुलने लगे हैं मुझ पर असरार जिन्दगी के ॥
बारे अलम उठाया रंगे निशात देता ।
आये नहीं हैं यूं ही अन्दाज बेहिसी के ॥
वफा पर दिल को सदके जान को नजरे जफ़ा कर दे ।
मुहब्बत में यह लाजिम है कि जो कुछ हो फिदा कर दे ॥



अब तो यही इच्छा है -





बहे बहरे फ़ना में जल्द या रव लाश 'बिस्मिल' की ।
कि भूखी मछलियां हैं जौहरे शमशीर कातिल की ॥
समझकर कूँकना इसकी ज़रा ऐ दागे नाकामी ।
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से ॥



सताये तुझको जो कोई बेवफा, 'बिस्मिल' ।
तो मुंह से कुछ न कहना आह ! कर लेना ॥
हम शहीदाने वफा का दीनों ईमां और है ।
सिजदे करते हैं हमेशा पांव पर जल्लाद के 






यदि देश-हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्‍ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ॥




मरते 'बिस्मिल' 'रोशन' 'लहरी' 'अशफाक' अत्याचार से ।


होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥ 

इस अमर शहीद को मेरा कोटि कोटि नमन! जय हिंद!

Thursday, May 27, 2010

वन्दे मातरम्

इस नए ब्लॉग की शुरुआत बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय की अमर कृति से कर रहा हूँ जो आज भी हमारे अन्दर एक नया  जोश भर देती है, ये रचना सर्वप्रथम १८८२ में आनंदमठ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुई थी, इस रचना पर बहुत से विवाद भी हुए थे जैसे की ये हिंदुत्व वादी रचना है इत्यादि, लेकिन अंत में सभी विवादों से परे जाकर ये हमारा राष्ट्रीय गीत बन गयी!


वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम् ।।
 
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