एक लघुकथा..............
वो आज तक पागलों कि तरह चिल्लाता था कि अंग्रेजों भारत छोड़ो हमें आज़ादी चाहिए, आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कोई ६४-६५ साल पुराना फटेहाल तिरंगा लिए इधर से उधर दौड़ता हुए नारे लगाता रहता था, और सुभाष चन्द्र बोसे से तो वो अक्सर सवाल करता था कि तुमने खून माँगा था हमने दिया फिर हमें अब तक आज़ादी क्यों नहीं मिली? पर ना जाने क्यों गाँधी जी और नेहरु जी से वो हमेशा कुछ नाराज सा रहता था उसे विस्वाश ही नहीं था कि ये हमें आज़ादी दिलवा सकते हैं, कभी कभी वो भगत सिंह को याद करके दहाड़ें मार मार कर रोने लगता था और कहता था कि मेरा भगत अगर आज जिंदा होता तो ये फिरंगी कब के भाग खड़े होते, सारा मोहल्ला उससे परेशान था, मैं अक्सर उसे अपने कमरे कि खिड़की से देखा करता था, उसे देख कर मुझे भी ऐसा लगता था कि भारत आज भी गुलाम है, वो अक्सर घरों के शीशे ये कह कर तोड़ देता था कि इस घर में फिरंगी रहते हैं और फिर बहुत मार भी खाता था, एक दिन उसने मेरे घर का शीशा तोड़ दिया और बोला कि इस घर में भी ज़रूर फिरंगी रहते है, एक मेम रोज सुबह विलायती वस्त्र पहन कर इस घर से निकलती है और बच्चे को स्कूल छोड़ने जाती है, मैंने उसे कुछ नहीं कहा मुझे लगा कि ठीक ही तो कहता था वो, हम खुद ही आज फिरंगी बन कर अपने देश को गुलामी कि जंजीरों में जकड रहे है!
परन्तु अब से कुछ ही देर पहले एक विलायती कार उस पागल को रौंद कर चली गयी, उसकी लाश मुट्ठी बंद किये नारा लगाने वाले अंदाज में सड़क के बीचों बीच पड़ी है, और एक हाथ में उसने कस कर तिरंगे को पकड़ रखा है! पूरे मोहल्ले में आज पहली बार मरघट सा सन्नाटा है और मैं बंद खिड़की कि झीरी से झांक कर उसे देख रहा हूँ!
Wednesday, June 23, 2010
Monday, June 14, 2010
ऐसा कोई सिरफिरा अब नहीं यहाँ जो भारत को कहें माँ
शहीदों की चिताओ पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
आंसू सूख गए हैं
उनके भी
छोड़ गए थे जिन्हें
वो अकेले,
ऐसा कोई सिरफिरा
अब नहीं यहाँ
जो भारत को कहें माँ
और लुटा दे उस पे जां,
शहीद आत्महत्या के डर से
अब पुनर्जन्म नहीं लेते,
कोई देशभक्त
कैसे जिंदा रहेगा यहाँ
अपने ही भोंक रहे हैं खंजर
अपनों के जहाँ,
भूल चुके हम
भगत सिंह और सुभाष की बातें
गाँधी की तस्वीर
जेब में लिए फिरते हैं,
फिरंगियों से
लड़ते थे जो कभी
आज खुद
फिरंगी बने फिरते है,
शहीदों की चिताओं पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
हम तो खुद मर चुके हैं
ये तो लाशो के मेले हैं!
अब कहाँ लगते हैं मेले
आंसू सूख गए हैं
उनके भी
छोड़ गए थे जिन्हें
वो अकेले,
ऐसा कोई सिरफिरा
अब नहीं यहाँ
जो भारत को कहें माँ
और लुटा दे उस पे जां,
शहीद आत्महत्या के डर से
अब पुनर्जन्म नहीं लेते,
कोई देशभक्त
कैसे जिंदा रहेगा यहाँ
अपने ही भोंक रहे हैं खंजर
अपनों के जहाँ,
भूल चुके हम
भगत सिंह और सुभाष की बातें
गाँधी की तस्वीर
जेब में लिए फिरते हैं,
फिरंगियों से
लड़ते थे जो कभी
आज खुद
फिरंगी बने फिरते है,
शहीदों की चिताओं पर
अब कहाँ लगते हैं मेले
हम तो खुद मर चुके हैं
ये तो लाशो के मेले हैं!
Thursday, June 10, 2010
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली (अमर शहीद भगत सिंह)
अमर शहीद भगत सिंह कि कुछ पंक्तियाँ, ३ मार्च १९३१ को अपने भाई को लिखे पत्र में ये पंक्तियाँ लिखी थी......
उसे ये फिक्र है हरदम नया तर्जे-ज़फ़ा क्या है,
हमें यह शौक है देखें सितम कि इन्तहा क्या है!
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा ज़हां अदू सही, आओ मुकाबला करें!
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चरागे - सहर हूँ बुझा चाहता हूँ!
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली,
ये मुस्ते - खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे!
उसे ये फिक्र है हरदम नया तर्जे-ज़फ़ा क्या है,
हमें यह शौक है देखें सितम कि इन्तहा क्या है!
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें,
सारा ज़हां अदू सही, आओ मुकाबला करें!
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चरागे - सहर हूँ बुझा चाहता हूँ!
हवा में रहेगी मेरे ख्याल कि बिजली,
ये मुस्ते - खाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे!
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